– संजय शर्मा-
शुक्रवार की सुबह पूरे देश के लिए अलग ही थी। जैसे ही पता चला कि हैदराबाद में जिन आरोपियों ने महिला डॉक्टर के साथ दरिंदगी की थी, उन्हें पुलिस ने एनकाउंटर में ढेर कर दिया तो लोग खुशी से उछल पड़े। पुलिस की वाहवाही होने लगी, फूल बरसे और मिठाई तक बांट दी गई। नौ दिन से मन में उथल-पुथल मचा रहा आक्रोश मानो पलभर में शांत हो गया। क्षुब्ध मन उल्लास से भर गया, लोग कहने लगे, ‘इसे कहते हैं न्याय, न तारीख न पेशी, मिल गई मौत की सजा।’ किसी ने कहा, ‘फांसी नहीं तो एनकाउंटर सही।’ सड़क से लेकर संसद तक यही चर्चा, सब पुलिस की पीठ थपथपाते नजर आए। वहीं एनकाउंटर पर सियासती सवाल भी उठे, लेकिन जनभावनाओं के तेज प्रवाह में सब बह गया। हो सकता है कि न्याय के सिद्धांत की कसौटी पर इस एनकाउंटर को परखने के लिए आगे भी बहस हो, लेकिन इतना साफ है कि पुलिस के इस एक्शन के बाद देश में जो जश्न मनाया गया, वह सरकार के लिए बड़ा सबक है। सरकार को ये बात समझ में आ जानी चाहिए कि मासूम बेटियों के साथ दरिंदगी करने वाले, उनकी अस्मत तार-तार करने वाले वहशी हैवानों को तत्काल सजा नहीं मिलने से उनके माता-पिता के साथ-साथ समाज कितना आहत है। कितनी पीड़ा, कितना दर्द उनके मन में है। बेटियों के साथ ज्यादती के खिलाफ इंसाफ मांगने वाले अभिभावक कानून की चौखट पर अपना सिर पटकते रहते हैं, लेकिन न्याय की प्रक्रिया इतनी लंबी है कि खत्म होने का नाम नहीं लेती। अपराध का कितना भी भयावह, खौफनाक और वीभत्स रूप सामने आ जाए सिस्टम की सुस्ती टूटती ही नहीं। आरोपी पकड़ में आ जाएं तो भी वर्षों तक सजा नहीं मिलती। शुक्रवार के पुलिस एनकाउंटर ने इस दर्द पर मरहम जैसा काम किया। लोग खुशी से जश्न मनाते हुए कहने लगे ‘सिस्टम सुस्त, एनकाउंटर दुरुस्त’। जाहिर है ये जश्न सरकारी सिस्टम की सुस्ती पर करारा प्रहार है, जो साफ संकेत कर रहा है कि आपराधिक न्याय प्रक्रिया पर जनता का कितना सा विश्वास रह गया है। जनता ने एनकाउंटर को ‘रिकॉर्ड समय में मिलने वाला इंसाफ’ माना है तो फिर सरकार समझे कि सिस्टम से आमजन का भरोसा उठ गया है। आखिर सिस्टम पर भरोसा भी करें तो कैसे? 16 दिसंबर 2012 को निर्भया केस ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था, क्या हुआ केस में? फांसी की सजा जैसे प्रावधान जोड़कर कानूनों को सख्त करने की कवायद हुई, पर आपराधिक न्याय प्रक्रिया को सुधारने की नहीं। सात साल हो गए, निर्भया केस में बर्बरता करने वाले आरोपियों को फांसी की सजा नहीं मिली। बल्कि शुक्रवार को ही बड़ी बात यह सामने आई कि सामूहिक दुष्कर्म और हत्या के गुनाह के लिए फांसी की सजा का सामना कर रहे दोषियों में से एक अभियुक्त की दया याचिका को गृह मंत्रालय ने राष्ट्रपति के पास उसे खारिज करने की सिफारिश के साथ भिजवाया है। बड़ी हैरानी की बात ये भी है कि निर्भया केस के सात साल बाद जब हैदराबाद केस को लेकर जनाक्रोश उपजा तब सर्वोच्च पदों पर आसीन लोग सवाल उठाने लगे कि फांसी की सजा पाने वाले के लिए दया याचिका का प्रावधान क्यों है?, अगर उनके मन में वेदना है तो सरकार के निर्णयों में यह क्यों नहीं दिखती? अब भी ये सुझाव व सवाल तक क्यों सीमित है? न्याय प्रक्रिया की स्थिति देखें तो हैदराबाद की ‘दिशा’ के अभियुक्त एनकाउंटर में मारे नहीं जाते तो फिर केस में फैसला होने के बाद भी निर्भया केस के अभियुक्तों की तरह कई महीनों तक दया याचिका के सहारे जिंदा रहते। सरकारी सिस्टम की सुस्ती का दूसरा बड़ा नमूना 5 दिसंबर को देखने को मिला जब निर्भया कोष से सौ करोड़ रुपए इस बात के लिए जारी हुए कि हर थाने में महिला सहायता डेस्क बनाई जाए, ताकि थाने महिलाओं की पहुंच के योग्य हों और अत्याचार से पीड़ित महिलाएं अपनी बात वहां आसानी से कह सकें। जब सरकार ही यह मान रही है कि जहां महिला को अपनी व्यथा बतानी है, वह जगह भी उसके अनुकूल नहीं है तो महिलाओं से संबंधित अपराध कैसे कम होंगे। इस समस्या पर अब तक ध्यान क्यों नहीं दिया गया? नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकडेÞ बताते हैं कि निर्भया केस के बाद महिला अत्याचार के मामले बढ़ते गए। वर्ष 2013 में महिला अत्याचार के केस 3 लाख 9 हजार थे, जो वर्ष 2017 में बढ़कर 3 लाख 59 हजार हो गए। इनमें वर्ष 2013 में दुष्कर्म के मामले 33 हजार 707 थे, जो वर्ष 2016 में 38 हजार 947 हो गए तथा वर्ष 2017 में यह केस कुछ घटकर 32 हजार 559 रहे। जिन पांच राज्यों में दुष्कर्म के केस ज्यादा हो रहे हैं, उनमें राजस्थान भी शामिल है। इन हालात को देखते हुए हैदराबाद एनकाउंटर को लेकर जश्न मना रहे लोगों को समझ लेना चाहिए कि केवल एक कार्रवाई से खुश होने या संतोष प्रकट करना पर्याप्त नहीं है। क्योंकि यह हकीकत है कि आपराधिक मामलों का फैसला मौजूदा न्यायिक प्रक्रिया से ही होना है, जिसमें पुलिस की जांच-पड़ताल की अहम भूमिका होती है। यह भी नहीं भूलें कि दुष्कर्म के मामलों में पुलिस का क्या रवैया रहता है? इसका उदाहरण एनकाउंटर से पहले हैदराबाद में इसी केस में ही सामने आया था। वैसे भी बार-बार हैदराबाद केस जैसे एनकाउंटर तो होने वाले नहीं है। इसलिए सबको मिलकर सरकार पर सारा दबाव इस बात के लिए बनाना होगा कि क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की सुस्ती दूर हो। इसमें तत्काल न्याय मिले। राजनीतिक घटनाक्रमों के दौरान जब आधी रात को सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खुलते हैं तो तत्काल निर्णय के लिए निर्भया केस या हैदराबाद केस जैसी वारदातों पर रात-दिन सुनवाई की व्यवस्था क्यों नहीं होती? सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि पुलिस एनकाउंटर में मारे जाने जैसा खौफ कानूनी प्रक्रिया के माध्यम से अपराधियों में पैदा होना चाहिए, अन्यथा बेटियां असुरक्षित रहेंगी।